1971 के युद्ध पर पाकिस्तान का आंतरिक संकट: याह्या ख़ाँ और इतिहास का लेखा-जोखा
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र बना और पाकिस्तान के राजनीतिक और सैन्य ढांचे में गहरा संकट उत्पन्न हुआ। विशेष रूप से, पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या ख़ाँ की गतिविधियां और उनकी नीतियां इस विघटन का केंद्र रहीं।
याह्या ख़ाँ: संकट में नेतृत्व
याह्या ख़ाँ ने 1969 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पद संभाला। उनके नेतृत्व में देश राजनीतिक अस्थिरता, सैन्य दबाव और जन असंतोष से जूझ रहा था। 1970 के आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की पार्टी अवामी लीग ने बहुमत हासिल किया, लेकिन सत्ता हस्तांतरण में अनिच्छा और सैन्य कार्रवाई ने स्थिति को और बिगाड़ दिया।
याह्या ख़ाँ ने पूर्वी पाकिस्तान में स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए सैन्य बल का सहारा लिया, जिसे “ऑपरेशन सर्चलाइट” के नाम से जाना जाता है। इस ऑपरेशन के दौरान व्यापक मानवाधिकार हनन, हिंसा और नरसंहार हुए, जिससे पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह और भारत के हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1971 का युद्ध: युद्ध के अंतिम दिन
16 दिसंबर 1971 को भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी ढाका में प्रवेश किया, और पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण कर दिया। यह दक्षिण एशिया के इतिहास में सबसे बड़े सैन्य आत्मसमर्पणों में से एक था। युद्ध के अंतिम दिनों में याह्या ख़ाँ की भूमिका विवादास्पद रही। उन्होंने सैन्य नेताओं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से संपर्क बनाए रखा, लेकिन उनका नेतृत्व विफल साबित हुआ।
अंतरराष्ट्रीय दबाव और याह्या ख़ाँ की रणनीति
याह्या ख़ाँ ने युद्ध के दौरान अमेरिका और चीन से समर्थन की उम्मीद की थी। हालांकि, दोनों देशों ने केवल कूटनीतिक समर्थन प्रदान किया और युद्ध में हस्तक्षेप से बचते रहे। पाकिस्तान की सैन्य और राजनीतिक असफलताओं ने याह्या ख़ाँ की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए।
आलोचना और पद से हटाव
युद्ध के बाद याह्या ख़ाँ पर देश के विभाजन और सैन्य हार की जिम्मेदारी डाली गई। पाकिस्तान में उनके खिलाफ जन आक्रोश बढ़ा, और अंततः उन्हें पद से हटा दिया गया। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उनकी जगह ली और नए पाकिस्तान की राजनीतिक पुनर्रचना का कार्य संभाला। याह्या ख़ाँ का राजनीतिक करियर इसी हार के साथ समाप्त हो गया।
1971 के युद्ध का प्रभाव
यह युद्ध पाकिस्तान के लिए एक त्रासदी थी, जिसने देश को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट में डाल दिया। बांग्लादेश के गठन ने पाकिस्तान के क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव को कमजोर कर दिया। इसके अलावा, याह्या ख़ाँ की विफलता ने सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व के बीच विश्वास की कमी को उजागर किया।
इतिहास से सबक
1971 का युद्ध और याह्या ख़ाँ का नेतृत्व एक गहरा सबक प्रस्तुत करता है कि कैसे गलत नीतियां और जन आकांक्षाओं की अनदेखी एक राष्ट्र को विघटन की ओर ले जा सकती हैं। यह घटना न केवल पाकिस्तान बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए एक ऐतिहासिक चेतावनी है।
याह्या ख़ाँ का कार्यकाल और 1971 का युद्ध इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है। यह युद्ध केवल सैन्य रणनीतियों और राजनीतिक विफलताओं का प्रतीक नहीं है, बल्कि मानवाधिकार, न्याय और राष्ट्रीय एकता की लड़ाई का भी उदाहरण है।